चुनाव खर्च (Election Expenditure) : डेली करेंट अफेयर्स

कोरोना महामारी के बढ़ते कहर के बीच उत्तर प्रदेश समेत देश के कुल 5 राज्यों में विधानसभा चुनाव होने हैं। तारीखों का ऐलान भी हो चुका है। इसके ठीक पहले चुनाव आयोग ने एक बड़ा फैसला लेते हुए संसदीय और विधानसभा चुनावों में उम्मीदवारों के खर्च की सीमा को बढ़ा दिया है। चुनाव आयोग ने ये सीमा क्यों बढ़ाई? अब चुनाव में खर्च करने की नई सीमा क्या है? किसी उम्मीदवार के चुनावी ख़र्चे किस रूप में होते हैं और अगर कोई उम्मीदवार चुनावी खर्च से ज़्यादा धन खर्च करता है तो उस पर किस तरह की कार्रवाई हो सकती है।

हाल ही में चुनाव आयोग ने एक प्रेस रिलीज जारी कर इस पूरे मामले की जानकारी दी है। आप अपनी स्क्रीन पर इस प्रेस रिलीज को देख सकते हैं। इसमें बताया गया है कि महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, उत्तर प्रदेश, पश्चिम बंगाल और कर्नाटक जैसे बड़े राज्यों में संसदीय चुनाव खर्च सीमा 70 लाख से बढ़ाकर 95 लाख रुपए की गई है। गोवा, सिक्किम, अरुणाचल प्रदेश जैसे छोटे राज्यों और केन्द्र शासित प्रदेशों के लिए यह सीमा 54 लाख से बढ़ाकर 75 लाख रुपए की गई है। केन्द्र शासित प्रदेश जम्मू-कश्मीर में चुनाव व्यय सीमा बढ़ाकर 95 लाख रुपए की गयी है। बड़े राज्यों में विधानसभा निर्वाचन क्षेत्र के लिए व्यय सीमा 28 लाख से बढ़ाकर 40 लाख रुपए और छोटे राज्यों में 20 लाख से बढ़ाकर 28 लाख रुपए की गई है।

अब सवाल ये उठता है कि चुनाव आयोग ने ऐसा क्यों किया? दरअसल, चुनाव खर्च की सीमा का अध्ययन करने के लिए ECI ने 2020 में एक समिति का गठन किया था। इस समिति ने इसमें cost factors और अन्य संबंधित मुद्दों का अध्ययन करने के बाद ये पाया कि साल 2014 के बाद से मतदाताओं की संख्या और लागत मुद्रास्फीति सूचकांक यानी Cost Inflation Index में पर्याप्त वृद्धि हुई है। चुनाव आयोग ने इसमें चुनाव प्रचार के बदलते तौर-तरीकों को भी ध्यान में रखा, जो कि अब फिजिकल के साथ धीरे-धीरे वर्चुअल मोड में बदल रहा है। इलेक्शन कमीशन ने इस बारे में और बताते हुए कहा है कि साल 2014 से 2021 के बीच में 834 मिलियन से 936 मिलियन यानी 12.23% मतदाताओं की वृद्धि हुई है। जबकि लागत मुद्रास्फीति सूचकांक यानी Cost Inflation Index में भी 2014-15 के मुकाबले 2021-22 में 32.08% की बढ़ोत्तरी हुई है। इसी आधार पर चुनाव आयोग ने उम्मीदवारों के लिए मौजूदा चुनाव खर्च की सीमा बढ़ाने का फैसला किया है। ऐसे में अब उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, पंजाब, गोवा और मणिपुर जिन 5 राज्यों की विधानसभा के लिए चुनाव होने हैं वहां उम्मीदवार अब बढ़े चुनावी खर्च की सीमा तक धन खर्च कर सकते हैं।

यहां आपको लागत मुद्रास्फीति सूचकांक यानी Cost Inflation Index के बारे में जानना जरूरी है. दरअसल इसका इस्तेमाल मुद्रास्फीति के कारण साल-दर-साल वस्तुओं और संपत्ति की कीमतों में वृद्धि का अनुमान लगाने के लिए किया जाता है। सरल शब्दों में समझें तो समय के साथ मुद्रास्फीति की दर में वृद्धि से कीमतों में वृद्धि होगी और Cost Inflation Index की गणना कीमतों को मुद्रास्फीति दर से मिलाने के लिए की जाती है। बिल्कुल ही आम भाषा में कहें तो पहले की अपेक्षा महंगाई बढ़ गई इसी वजह से चुनावी खर्च में भी बढ़ोतरी की जरूरत थी.

अगला सवाल यह कि किसी उम्मीदवार के चुनावी ख़र्चे किस रूप में होते हैं और अगर कोई उम्मीदवार चुनावी खर्च से ज़्यादा धन खर्च करता है तो उस पर किस तरह की कार्रवाई हो सकती है? किसी उम्मीदवार द्वारा चुनाव अभियान के लिए सार्वजनिक सभाओं, रैलियों, विज्ञापनों, पोस्टर, बैनर, वाहनों और विज्ञापनों पर जो खर्चे आते हैं उसे ही चुनावी खर्च के रूप में कैलकुलेट किया जाता है। लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम (RPA), 1951 की धारा 77 के तहत, प्रत्येक उम्मीदवार को नामित होने की तारीख और परिणाम की घोषणा की तारीख के बीच किए गए सभी खर्चों का एक अलग और सही हिसाब रखना होता है। सभी उम्मीदवारों को चुनाव पूरा होने के 30 दिनों के भीतर अपने खर्च का विवरण चुनाव आयोग को देना ज़रूरी होता है। गलत खाता या अधिकतम सीमा से अधिक खर्च करने पर चुनाव आयोग द्वारा लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम (RPA), 1951 की धारा 10A के तहत तीन साल तक के लिए उम्मीदवार को अयोग्य घोषित किया जा सकता है।

चुनाव आयोग द्वारा चुनावी खर्च की सीमा तय करने का उद्देश्य ये होता है कि धनबल और नाजायज खर्च के बल पर निष्पक्ष चुनाव प्रक्रिया प्रभावित ना हो. लोकतंत्र का सही मकसद भी तभी पूरा होता है. हालांकि हम सभी जानते हैं कि सच्चाई क्या है और किस तरह से पत्तों की तरह चुनाव में पैसे उड़ाए जाते हैं। इसके उपाय के तौर पर विशेषज्ञ सुझाते हैं कि चूँकि अभी तक किसी राजनीतिक दल के खर्च की कोई सीमा तय नहीं हुई है, इसीलिए अक्सर पार्टी के उम्मीदवार फायदा उठाते हैं।