मिलेट्स फ़ूड फेस्टिवल (Millets Food Festival) : डेली करेंट अफेयर्स

हाल ही में कृषि मंत्रालय ने संसद में मिलेट्स फ़ूड फेस्टिवल का आयोजन किया। इसमें शामिल होने के लिए कृषि मंत्री ने तमाम बड़े नेताओं को एक निमंत्रण पत्र भेजा था।

संसद में 20 दिसंबर को इस मिलेट्स फ़ूड फेस्टिवल का आयोजन किया गया जिसमें मोटे अनाजों से बने पकवानों की प्रधानता थी। इस भोज में बाजरे का सूप, रागी डोसा समेत लगभग सभी व्यंजन मोटे अनाज से बनाये गए थे। स्टार्टर से लेकर डेज़र्ट तक सिर्फ मिलेट्स का ही जलवा था। इस भोज में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सहित कई सांसदों और मंत्रियों ने इस फ़ूड फेस्टिवल का आनंद लिया और सभी लोगों ने इन पकवानों की सराहना की।

दरअसल कदन्न अथवा मिलेट्स छोटे-छोटे दानों वाले ऐसे अनाज होते हैं जो पोषक तत्वों से भरपूर होते हैं। इसमें कोई एक अनाज नहीं शामिल होता है बल्कि यह कई अनाजों के एक वर्ग को कहा जाता है। इसमें ज्वार, बाजरा, कंगनी, कुटकी, रागी, कोदो, चीना और सांवा जैसे कितने ही अनाज हैं जो न्यूट्रिशन के मामले में गेंहू-चावल से कहीं आगे हैं।

भारत में अधिकांश मोटे अनाजों को खरीफ के मौसम में उगाया जाता है। कृषि मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार सकल कृषि उत्पादन में मोटे अनाजों का योगदान लगभग 7% तक है। इनमें मुख्य रूप से बाजरा, ज्वार और रागी उगाया जाता है। भारत में अधिकांश मिलेट्स उत्पादन गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र और कर्नाटक आदि राज्यों में होता है। ज्वार की खेती मुख्य रूप से महाराष्ट्र, कर्नाटक, राजस्थान, मध्य प्रदेश और उत्तर प्रदेश में की जाती है। साल 2020 - 21 में लगभग 4.78 मिलियन टन ज्वार का उत्पादन भारत में हुआ। इसी प्रकार भारत में बाजरे का उत्पादन साल 2020-21 में 10.86 मिलियन टन हुआ। भारत में राजस्थान, हरियाणा, गुजरात, मध्य-प्रदेश और महाराष्ट्र आदि राज्यों में बाजरे का उत्पादन किया जाता है।

मिलेट्स सिर्फ भारत ही नहीं बल्कि एशिया के कई देशों जैसे चीन, जापान आदि देशों में भी उगाये जाते हैं। लगभग 130 से अधिक देशों में मोटे अनाजों की खेती की जाती है। इतिहास की बात करें तो पुरातात्विक स्रोत यह स्पष्ट बताते हैं कि मनुष्य ने सबसे पहले ज्वार की ही खेती की थी।

साल 2011 की जनगणना के अनुसार भारत में लगभग 22 फीसदी लोग गरीबी रेखा के नीचे रहते हैं। ऐसे में भारत में भुखमरी और कुपोषण की स्थिति होना स्वाभाविक है। ऐसे में अगर हमारे खान-पान में मोटे अनाजों को बढ़ावा दिया जाए तो कुपोषण की स्थिति से काफी हद तक निपटा जा सकता है। इसके पीछे कारण यह है कि ये सुपर न्यूट्रीशस होने के साथ-साथ आसानी से उपलब्ध हैं। इन अनाजों का उत्पादन शुष्क और असिंचित मृदा में भी आसानी से किया जा सकता है। इसके अलावा इन्हें खाद की भी कम आवश्यकता होती है जिससे इनकी उत्पादन लागत काफी कम हो जाती है। इन अनाजों का उत्पादन गरीब किसान भी आसानी से कर सकते हैं। यानी अगर भारत और विश्व में मोटे अनाजों का उपयोग बढ़ने लगेगा तो खाद्य-संकट से तो मुक्ति मिलेगी ही, इसके अलावा छोटे और गरीब किसानों की आय भी बढ़ जाएगी।

इसलिए सरकार ये कोशिश कर रही है कि मोटे अनाजों के प्रयोग को बढ़ावा दिया जाए। इसी क्रम में साल 2018 में भारत ने संयुक्त राष्ट्र में यह प्रस्ताव दिया था कि साल 2023 को ‘अंतर्राष्ट्रीय मोटा अनाज का वर्ष’ घोषित किया जाए। संयुक्त राष्ट्र ने इस प्रस्ताव को स्वीकार भी कर लिया। और अब जबकि 2023 आने ही वाला है तो सरकार जोर शोर से इस कार्यक्रम को बढ़ावा दे रही है जिससे मोटे अनाजों का प्रयोग फिर से बढ़ सके।

ज़्यादा नहीं अगर आज से 15 साल भी पीछे हम जाएँ तो हमारे घरों में तिथियों के हिसाब से अलग-अलग त्यौहार पर इन अनाजों से कई तरह के पकवान बनते थे। जैसे सर्दी शुरू होते ही बाजरे के पुए और बाजरे की खिचड़ी या रागी का चीला। संक्रांति पर तो गुड़ और तिल की खुशबू बाज़ार से लेकर घर तक फ़ैली होती थी। लेकिन अब हमारी थालियों में शायद इस तरह के अनाज कम नज़र आते हैं। भारतीय रसोई में मिलेट्स को उनका वही स्थान वापस दिलाने के लिए सरकार कोशिश कर रही है।