प्रचंड बने नेपाली प्रधानमंत्री: क्या हैं भारत की चिंताएं : डेली करेंट अफेयर्स

किसी रचनाकार ने कहा है कि -

नेता कुर्सी और पद को मान बैठे हैं बपौती,
आम आदमी को रोजी रोटी की है चुनौती,
ये सब गंदी राजनीति का परिणाम है ,
दल-बदल कर राज करना इनका काम है।

इन्हीं पंक्तियों को सच साबित करता है पड़ोसी देश नेपाल का चुनावी परिणाम। हाल ही में नेपाल में हुए चुनाव में ऐसा फेरबदल हुआ कि दो दुश्मन दोस्त बन गए। हम बात कर रहे हैं नेपाल के नवनिर्वाचित प्रधानमंत्री पुष्प कमल दहल 'प्रचंड' और नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री खरगे प्रसाद ओली की। नेपाल की राजनीति में धुर विरोधी दोनों नेताओं ने हाथ मिला लिए हैं और दोनों की पार्टी में गठबंधन हो गया है। 'प्रचंड' नेपाल की CPN (Maoist Centre) और ओली Communist Party of Nepal (Unified Marxist-Leninist) पार्टी के नेता हैं। इन दोनों पार्टियों ने गठबंधन कर लिया है और अब पुष्प कमल दहल प्रचंड नेपाल के नए प्रधानमंत्री बन चुके हैं।

दरअसल नेपाल में राजशाही ख़त्म किये जाने के बाद प्रचंड का यह तीसरा कार्यकाल है। नेपाल में राजनीति की मुख्यधारा में शामिल होने से पहले लगभग एक दशक तक प्रचंड ने माओवादी विद्रोह का नेतृत्व किया था। साल 2006 में वे मुख्यधारा की राजनीति में सक्रिय रूप से शामिल हो गए। ओली के साथ गठबंधन से पहले प्रचंड पूर्व प्रधानमंत्री शेर बहादुर देउबा के साथ चुनाव गठबंधन में थे यानी चुनाव के पहले प्रचंड और देउबा का गठबंधन था। बीते 25 दिसंबर तक देउबा और प्रचंड का ये गठबंधन चुनावी परिणाम में सबसे आगे था। इस गठबंधन में प्रचंड अपने आपको प्रधानमंत्री बनाना चाहते थे, जबकि शेर बहादुर देउबा को यह मंजूर नहीं था इसीलिए उन्होंने प्रचंड की प्रधानमंत्री पद की दावेदारी को ठुकरा दिया तो प्रचंड ने अपना प्रचंड रूप दिखाते हुए गठबंधन को ख़त्म कर दिया और अपने धुर विरोधी ओली से हाथ मिला लिया। इस गठबंधन का परिणाम यह निकला कि प्रचंड और ओली के गठबंधन ने बहुमत साबित कर प्रचंड के नेतृत्व में सरकार बना ली।

सवाल उठता है कि इस नए और अप्रत्याशित गठबंधन से भारत नेपाल रिश्ते पर क्या असर पड़ सकता है? सबसे पहली बात तो चीन ओली को अपने मित्र के रूप में देखता है, ओली हमेशा से ही भारत विरोधी स्वर बोलते आए हैं। ऐसे में ओली के इस भारत विरोधी व्यवहार का लाभ लेने के लिए चीन पूरी कोशिश करेगा। इतना ही नहीं, ओली और प्रचंड दोनों ही कम्युनिस्ट पार्टी से ही सम्बन्ध रखते हैं, इसलिए उनकी मूल विचारधारा चीन के पक्ष में ही होने की अधिक सम्भावना है। यह भारत के लिए थोड़ी सी चिंता की बात हो सकती है। इससे अलग, भारत की बात की जाये तो भारत देउबा को अपने मित्र के रूप में देखता है। साल 2015-16 और साल 2018-21 तक ओली के कार्यकाल में भारत-नेपाल के पारस्परिक संबंधों में कटुता आ गयी थी जोकि देउबा के प्रधानमंत्री बनने के बाद सामान्य हो पाए थे। ग़ौरतलब है कि प्रचंड ने अपने माओवादी विद्रोह और नेपाल में सत्ता पलटने के दौरान लगभग आठ साल भारत में बिताये थे। ऐसे में उम्मीद है कि प्रचंड शायद भारत को लेकर उतना नकारात्मक रुख न रखें। लेकिन फिर भी उनकी सरकार में ओली का दबदबा तो रहेगा ही। ऐसे में भारत के मन कुछ दुविधाओं का पनपना स्वाभाविक है जैसे कि नेपाल में वेस्ट सेती जलविद्युत परियोजना को भारत द्वारा विकसित किये जाने की जो कोशिशें चल रही थीं उनमें अड़चनें आ सकती हैं। हालांकि एक अच्छे पड़ोसी के तौर पर भारत में सबसे पहले प्रचंड को अपना बधाई संदेश भेजा था। बहरहाल यह तो आने वाला समय ही बताएगा कि नेपाल में ये नया गठबंधन भारत के साथ अपने सम्बन्ध बहाल करने में क्या रणनीति अपनाता है।